छोटे छोटे सवाल –१७
अपना नाम सुनते ही उत्तमचन्द कुरसी से कुछ आगे को झुक आए मगर सेक्रेटरी और वाइस-प्रेसीडेंट की अपने सम्बन्ध में ऐसी राय सुनकर उन्होंने टेढ़ी करते हुए अपनी गर्दन झुकाई और मुख पर सहमति-सूचक सलज्ज मुस्कान बिखेरकर असमर्थता में हाथ जोड़ दिए।
लालाजी की व्यावहारिक बुद्धि को यह समझने में देर नहीं लगी कि अब उनकी परीक्षा का समय आ गया है। अतः उन्होंने अपना कर्तव्य निश्चित किया और बोले, "तो भय्यो, बखत कू क्यूँ बरबाद करा जावै। उधर मास्टर लोग भी सुबह से इन्तजारी में बैट्ठे हैं। अगर पंच बुरा न मान्नें तो दोन्नों तरफ का एक-एक आदमी रुक जाये, और बाक्की पंच लोग दूसरे कमरे में चले जावें।"
बात माकूल थी। किसी को एतराज नहीं हुआ। सारे मेम्बर खुद ही कमरे से उठकर चले गए। केवल गनेशीलाल और चौधरी नत्थूसिंह ही वहाँ रह गए। लालाजी ने कहा, "हाँ, भय्या गनेसीलाल, अब कहो क्या बात है ?"
गनेशीलाल खखारकर गला साफ़ करते हुए बोले, "लालाजी, आप तो जान्नै ही हैं। दसियों साल्लों से कमेटी का मिम्बर हूँ। आज लौं मैंन्ने सदा न्याय की बात करी है। अब यही लो। आपने हिन्दी के प्रोफेसरों में पाठक को चुना। मैंन्ने चूं-चकर करी ? भगवान जान्नै है मेरे साले की चिट्ठी धरी है मेरी जेब में। उनने रोहतगी के लियो लिक्खा था। पर मैंन्ने करा आपका विरोध ?" और इतना कहकर गनेशीलाल जेब से चिट्ठी निकालने लगे।
किन्तु उनसे पहले ही चौधरी नत्थूसिंह ने अपनी जेब से एक चिट्ठी निकालकर लालाजी के सामने धर दी। बोले, "चिट्ठी क्या मेरे पास नहीं आई ! वह जो वर्मा था, मेरे बड़े लड़के की बहू का सगा मुमेरा भाई था। बल्कि मेरे यहाँ ही ठहरा था। कित्ती हिजो होगी मेरी, लड़के की ससुराल में। पर मैंन्ने ही क्या कहा ? कायदे की बात पै सबको झुकना पड़ता है।"